अश्वत्थामा को श्राप कैसे मिला

Ankit singh
7 min readSep 16, 2021

महाभारत कालीन इस घटना का उल्लेख तब मिलता है जब गुरु द्रोणाचार्य करौव पक्ष से सेनापति थे और युद्ध में अपने युद्धकला कौशल से हाहाकार मचा रहे थे। गुरु द्रोण के रहते हुए पड़ावों को युद्ध जीतना लगभग असम्भव था। गुरु द्रोण अपने युद्धकौशल और धनुर्विद्या के कारण एक दिन में हजारों लाखों सैनिकों को मार देते थे। उनके इस पराक्रम को देखकर भगवान श्री कृष्ण ने भीम को अश्वथमा नामक हाथी को मारने का आदेश दिया और भीम से ये बोला की पूरे युद्ध क्षेत्र में ये घोषणा करे की अश्वाथमा मारा गया। ये बात जब द्रोणाचार्य को पता चली की मेरा पुत्र अश्वत्थामा मारा गया तो उन्हे तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। इस बात का पता लगाने के लिए वे महाराज युधिष्ठिर के पास गए। चूंकि युधिष्ठिर महाराज को भगवान श्री कृष्ण ने पहले से ही बताया था की आपको इस बार झूठ बोलना है की- “हा आपका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया" लेकिन युधिष्ठिर महाराज केवल सत्य बोलते थे। वो ये बात नही जान सके की जब परम सत्य अर्थात भगवान श्री कृष्ण झूठ बोलने को बोले तो हमे झूठ बोलना चाहिए। जब द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर महाराज से पूछा की- क्या सच में मेरा पुत्र अश्वत्थामा मारा गया तो युधिष्ठिर महाराज ने बोला- हां अश्वत्थामा मारा गया। “जो की एक हाथी था" उन्होंने ये बात “ जो की एक हाथी था" धीमे आवाज में बोली। ये बात सुनकर गुरु द्रोण अत्यंत भाव विभोर हो गए। अब वे अत्यंत दुख और गंभीर अवस्था में चले गए। अब उनका मन तनिक भी युद्ध करने का नही था अतः एक समय ऐसा आया की उन्होंने अपना धनुष छोड़ दिया और अपने रथ पे ही भगवान श्री कृष्ण का ध्यान लगाकर अपना शरीर त्याग दिया। अब रथ पर उनके केवल पार्थिव शरीर ही था। उस समय दृष्टिधुम्न ने उन्हे रथ से उतारकर अपने तलवार से उनका वध किया। चूंकि दृष्टिधुमं के इस कृत्य से केवल ये लगा की उसने ही द्रोणाचार्य का वध किया है। लेकिन वास्तव में गुरु द्रोण पहले ही प्राण छोड़ चुके थे।

अब ये बात जब अश्वत्थामा को पता चली की उनके पिताजी को इनलोगो ने कैसे मारा वो अत्यंत क्रोधित हो गया। हालाकि गुरु द्रोण प्राण पहले ही छोड़ चुके थे लेकिन अश्वत्थामा को यही लग रहा था की इन लोगो ने झूठ बोलकर एवम दृष्टिदुम्न ने उन्हे मारा वो भी तब जब वो ध्यान में थे। ये बात सोचकर उसने युद्ध में लाखो हजारों सैनिकों को एक दिन में मार दिया एवम दिव्यास्त्रों का आवाहन कर दिया। उसके बाद उसने नारायण अस्त्र पाडवो की ओर छोड़ दिया। जब नारायण अस्त्र पाडवों की ओर बढ़ा तो भगवान श्री कृष्ण ने सबको दंडवत होने का आदेश किया। सभी सैनिक और पांडव ने नारायण अस्त्र के सामने दंडवत किया। जिससे नारायण अस्त्र का थोड़ा भी असर पांडवो और उनकी सेना पे नही हुआ। ये जानकर की पांडवो ने नारायण अस्त्र को विफल कर दिया। अश्वथामा प्रतिशोध की अग्नि में और भी ज्यादा जलने लगा। वो प्रतिशोध की अग्नि में इतना ज्यादा जल रहा था की वो रात्रि में सोता नही था। पूरी रात यही सोचता रहता था की पांडवो को कैसे मारा जाए एवं इनका नुकसान कैसे किया जाए।

एक रात अश्वत्थामा बैठा हुआ था। उसने ये देखा की एक पेड़ पे कुछ कोवे सोए हुए है और वाहा एक उल्लू आता है और अपनी चोंच से मार मार के सभी कोवै को मार देता है। ये देखकर अश्वत्थामा सोचता है की कितना घृणित कार्य है ये । लेकिन फिर सोचता है की अगर ये दिन होता तो उल्लू कभी भी कौवे को नही मार पाता ठीक वैसा ही पांडवो के साथ भी है। इन्हे भी दिन में नही मारा जा सकता इन्हे रात में ही मारना होगा और ये विचार उसने कृपाचार्य और सुसर्मा से बताया उन्होंने उसे ऐसा घृणित कार्य ना करने को कहा लेकिन फिर भी अश्वत्थामा नही माना और रात्रि में ही पांडवो के शिविर की ओर चल दिया।

वाहा पहुंचकर उसने ये देखा की उनके द्वार पे एक विशालकाय व्यक्ति पहरा दे रहा है। अश्वत्थामा ने उस विशालकाय व्यक्ति के उपर हमला कर दिया। उसने उस व्यक्ति के उपर हर तरह के अस्त्र शस्त्र चलाए परंतु उसके उपर किसी भी अस्त्र शस्त्र का कोई भी असर नहीं हुआ। बल्कि सारे तीर उनके शरीर से टकराकर जमीन पे गिर रहे थे। थोड़े समय बाद वो विशाल आकृति एक सामान्य से आकृति में होने लगी और थोड़ी देर बाद जब अश्वथामा ने देखा तो वाहा शंकर भगवान थे। चूंकि अश्वत्थामा स्वयं शंकर भगवान का भक्त था। वह भगवान शंकर से पूछने लगा की ऐसा कैसे संभव हो सकता है की उनके पिताजी को द्रुपद के पुत्र ने मार दिया। शंकर भगवान से अश्वथामा को याद दिलाया की ऐसा होना मुस्किल तो था लेकिन होता वोही है को भगवान चाहते है और जहा उनके आराध्य श्री कृष्ण होते है वोही पे मैं भी होता हु। इश्लिए पांडवो पे नही लेकिन अगर वो द्रुपद के पुत्र से प्रतिशोध लेना चाहता है तो मैं तुम्हारे साथ रखूंगा लेकिन श्री कृष्ण या पांडवो के साथ प्रतिशोध लेने में मै तुम्हारे साथ नही अपितु भगवान श्री कृष्ण का अंगरक्षक बनके खड़ा रहूंगा।

इनसभी के बीच युधिष्ठिर महाराज को अपने शिविर के बाहर एक काली औरत दिखाई दी। जिसकी आंखे लाल और बाल खुले हुए थे और उसकी हाथ में रस्सियां थे। युधिष्ठिर महाराज समझ गए की आज कालरात्रि यहां आई हुए है। अवश्य ही कुछ अमंगल होने वाला है।

तदपश्चा भगवान शिव स्वयं अपनी शक्ति अश्वत्थामा को दिए और अश्वथामा सबसे पहले दृष्टिधुम के शिविर में गया जहा वो सो रहा था। सबसे पहले तो उसने लात मारकर दृष्टिधुम्न को उठाया और घुसे मार मार कर दृष्टिधुम्न को मार दिया। उसके बाद द्रुपद एवम द्रौपदी के अन्य पुत्रों को भी रात्रि में ही मार दिया। और ऐसा कार्य करने के बाद वो इसके बारे में बताने के लिए दुर्योधन के पास गया जो की टूटी ही जांघ लिए अंतिम सास ले रहा था। जब दुर्योधन को ये बात पता चली की अश्वथामा ने इतना गन्दा काम किया है। उसने ये बोला की मैंने अपने जीवन बहुत से नीच और घटिया काम किए लेकिन अश्वथामा आज जो तूने कार्य किया है मुझे शर्म आती है की तू मेरे पक्ष से था तुमने तो मुझसे भी ज्यादा नीच कार्य किया है। ऐसा बोलकर दुर्योधन ने अपने प्राण त्याग दिए। इस बात से ये पता चलता है की स्वयं दुर्योधन भी उतना नीच और जघन्य कार्य नही करता था जितना की अश्वाथमा ने किया।

उसके बाद अश्वत्थामा अनेक स्थानों पे भ्रमण करके शक्ति इक्कठा करने लगा। एक बार वो द्वारिका भी गया था। ब्राह्मण के वेश बनाकर उसने भगवान से कृष्ण से उनका सुदर्शन चक्र मांगा था ताकि वो पांडवो और स्वयं भगवान श्री कृष्ण को उससे मार के अपना प्रतिशोध ले। लेकिन जैसे ही भगवान श्री कृष्ण ने उसे अपना सुदर्शन चक्र दिया वह उसके तेज से जलने लग और जमीन ने धसने लग। चीखते चिल्लाते हुए उसने भगवान श्री कृष्ण से सुदर्शन चक्र वापस लेने को कहा।

ऐसे ही शक्ति की तलास में एक बार अश्वत्थामा व्यास जी के आश्रम में गया हुआ था। ये जानकर की अश्वथामा यहां आया हुआ है। पांडव भी वाहा आ पहुंचे। पांडवो को देखकर अश्वत्थामा क्रोध से व्याकुल हो उठा और दिव्यास्त्रों का आवाहन कर दिया। उसने ब्रह्मास्त्र पांडवो पे छोड़ दिया। ब्रह्मास्त्र को देखकर श्री कृष्ण ने अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र छोड़ने का आदेश दिया। इतने समय में ही व्यास जी वाह आ गए और दोनो लोगो से ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा। अर्जुन ने उनकी आदेश का पालन करके ब्रह्मास्त्र को वापस लिया परंतु अश्वथामा ने उसे वापस नहीं लिया। उसने वो ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा की गर्भ की ओर भेज दिया। और इस भावना से की इनका तो मैं नुकसान करके रहूंगा। लेकिन भगवान के होते हुए ऐसा नहीं हो सका। वो ब्रह्मास्त्र उत्तरा के गर्भ में परिक्षित महाराज को लगा लेकिन भगवान ने उन्हे पुनः जीवित कर दिया। अश्वथामा को भगवान श्री कृष्ण ने ये एहसास दिला दिया की मेरे होते हुए किसी का तू कुछ भी बुरा नही कर सकता। इसके बाद भीम ने अश्वत्थामा के मस्तक पे मौजूद मणि को निकलवाया और भगवान श्री कृष्ण अश्वथामा के उपर अत्यंत क्रोधित हुए और उसको श्राप दिया की तुम युगों तक इस धरती पे भटकोगे, तुमसे कभी कोई बात नही करेगा, तुम्हारे शरीर ने हमेशा पस और खून आता रहेगा और तुम लोगो से स्नेह और सहानभूति पाने के लिए भी तरसोगे।

ये कहकर भगवान श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया क्योंकि उसने एक गर्भ में पल रहे बच्चे के उपर हमला किया था।

अश्वत्थामा को श्राप मिलना हमे यही बताता है की हमारे सनातन धर्म ने गर्भ ने किसी शिष्य को मार देने एक अक्षम्य अपराध होता है। जिसकी सजा अश्वथामा प्रवित्ती के व्यक्ति को इसी लोक में भुगतना पड़ता है।

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अंकित सिंह
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