एकलव्य की सच्ची कहानी। क्या आप जानते है?
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महाभारत की यह कहानी उन दिनों में आती है जब पांडव और कौरव एक साथ शस्त्र विद्या सीखा करते थे। गुरु द्रोणाचार्य सभी कौरव और पांडवों के गुरु थे । ये कहानी लगभग सभी लोग जानते ही होंगे लेकिन क्या ये बिलकुल ऐसी ही है जैसा हमने सुना और पढ़ा था? जी बिलकुल नहीं
- एकलव्य के बारे में बताया ये जाता है की वो अर्जुन से भी बड़े धनुर्धर थे। कुछ ऐसा ही कर्ण को लेके भी सुनने को मिलता है लेकिन वास्तिवकता में ये दोनो मिलकर भी अर्जुन को परास्त नहीं कर सकते थे। विराट के युद्ध में अर्जुन किन्नर होकर भी सारे महारथियों को अकेले ही हराए थे। इस बात से ही अंदाजा लगा लेना चाहिए की अर्जुन का पराक्रम ही सर्वश्रेष्ठ था।
- बहुमत कहा पे शुरू होता है जब एकलव्य ने कुत्ते के मुख में बाण मारके उसका मुख बंद कर दिया था। क्या किसी पशु के मुख को बाण से बंद कर देना पराक्रम कहलाता है? मेरे हिसाब से बिल्कुल भी नही। ऐसा हम इसलिए मानते है क्योंकि वास्तिवकता में हमने कभी अर्जुन के पराक्रम को जानने की कोशिश ही नही की। अर्जुन ऐसे पराक्रम कभी नहीं दिखाते थे जिससे किसी असहाय को चोट पहुंचे। लेकिन अगर ऐसे कृतियों से पराक्रम सिद्ध हो तो अर्जुन कर्ण के कुंडल में से भी अपने बाणों को निकाल दिया करते थे।
एकलव्य जो की एक निषाद राजकुमार थे उनकी एक इच्छा थी की वो संसार के सबसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बने उनसे बड़ा कोई धनुर्धर इस संसार में हो ही नही। वो सिर्फ सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना चाहते थे। लेकिन इससे धर्म की रक्षा हो या नही इससे उनका कोई अभिप्राय नही था।
जबकि इसके विपरित अर्जुन धनुर्विद्या इसलिए सीखना चाहते थे ताकि धर्म की रक्षा हो सके।
चूंकि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने के लिए सर्वश्रेष्ठ गुरु का होना भी आवश्यक होता है इसीलिए एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए सबसे योग्य शिक्षक गुरु द्रोण के पास गए और उनसे धनुर्विद्या सिखाने के लिए अनुरोध किया परंतु गुरु द्रोण ने उनको मना कर दिया। क्यों? क्योंकि गुरु द्रोण कोई आम इंसान नही थे वो दिव्य पुरुष थे। वो किसी इंसान को देख के ही उसकी मानसिकता का पता लगा लेते थे। उसके गुण अवगुण को भली भाती जान लेते थे ऐसे दिव्य शरीर था गुरु द्रोण का। या हम ये कहे ऐसी सुपरपावर थी गुरु द्रोण के पास।
एकलव्य की इस मंशा को जानकर ही गुरु द्रोण ने उन्हें धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया।
उसके बाद एकलव्य वापस नहीं गए वो वोही जंगल में रुक गए तथा गुरु द्रोण की मूर्ति बनके धनुर अभ्यास करते थे। जब गुरु द्रोण अपने शिष्यों को सिखाए करते थे तो एकलव्य चुपके से झाड़ियों में से देख लेता और अभ्यास करता।
एक दिन जब कौरव और पांडव जंगल में विहार कर रहे थे तो उनके साथ एक कुत्ता भी था जोकि किसी चीज को देख भोकता हुआ उसके पीछे भागा और जब वापस आया तो उसका मुख बाणों से भरा हुआ था। ऐसा देखकर सभी पांडव और कौरव गुरु द्रोण के पास गए और उनको ये बात बताई। जब गुरु द्रोण को ये बात पता चली तो वो एकलव्य के पास गए और उसके गुरु के बारे में पूछे। एकलव्य ने उनको ही अपना गुरु बताया और जंगल में बनी उनकी मूर्ति भी दिखाई। जिससे पश्चात गुरु द्रोण ने उसका अंगूठा गुरुदक्षिणा में मांग लिया। लेकिन ऐसा गुरु द्रोण ने क्यों किया? क्या सिर्फ इसलिए की वो अर्जुन को सबसे बड़ा धनुर्धर देखना चाहते थे? जी नहीं।
अरे जिस महापुरुष को भगवान श्री कृष्ण भी प्रणाम किया करते थे उनके अंगूठा मांगने के पीछे ये मंशा कतई नहीं थी। चूंकि अगर वो उस समय ऐसा नही करते तो एक प्रथा ऐसी भी शुरू हो जाती जहा पे विद्या लेने के लिए गुरुकुल का होना आवश्यक नही होता। सभी एकलव्य को आदर्श मानके गुरुकुल से शिक्षा लेने के बजाय चोरी चुपके विद्या अर्जित करते। वो रीति शुरू ना हो जाए जब गुरु की महत्ता ही ना हो यद्यपि एकलव्य का ज्ञान अपूर्ण था। ऐसी परंपरा को रोकने के लिए गुरु द्रोण ने एकलव्य का दाहिने हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।
- और आगे चलके भी यही हुआ एकलव्य ने जरासंध के साथ मिलकर भगवान श्री कृष्ण के खिलाफ युद्ध किया। क्योंकि वो बुराई का साथ दे रहा था इसीलिए भगवान ने ही उसको अपने सुदर्शन चक्र से उसका वध किया।
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